कल्पना

कल्पना- कल्पना गत अनुभवों से सम्बन्धित होती है। इसमें हमेशा नवीनता का तत्व पाया जाता है। बालक को कल्पना में यह यह अनुभव होता है कि कल्पना से सम्बन्धित अनुभव नवीन है। कल्पना को परिभाषित करते हुए कहा जा सकता है कि कल्पना पूर्व प्रत्यक्षीकृत अनुभवों पर आधारित वह प्रक्रिया है जो रचनात्मक होती है, परन्तु आवश्यक नहीं है कि वह सृजनात्मक भी हो।

बालक जब पुनः स्मरण और कल्पना करना सीख लेता है तब उसका सामाजिक सम्पर्क अधिक बढ़ जाता है। इस योग्यता के प्राप्त होते ही बालक उन वस्तुओं के सम्बन्ध में भी विचार करने लग जाता है जो उसके सामने नहीं होती है। कल्पना का महत्व बालक की विभिन्न विकासात्मक प्रक्रियाओं में है। बालक में अनेक क्रियात्मक कौशलों का विकास उसकी कल्पना पर आधारित होता है।  परिभाषाएँ:-

  1. रायबर्न के अनुसार- ‘‘कल्पना वह शक्ति है जिसके द्वारा हम अपनी प्रतिभाओं का नये आकार से प्रयोग करते हैं। वह हमको अपने पूर्ण अनुभव को किसी ऐसी वस्तु का निर्माण करने में सहायता देती है, जो पहले कभी नहीं थी।‘‘
  2. मैक्डूगल के शब्दों में –“कल्पना दूरस्थ वस्तुओं के सम्बन्ध का चिन्तन है।“

उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि कल्पना एक मानसिक प्रक्रिया है, यह स्वतः ही चलती रहती है। इसका प्रयोग क्रमबद्धता पर निर्भर करता है। कल्पना का आधार पूर्व अनुभव होता है। इसके बिना कल्पना साकार रूप नहीं ले पाती है। कल्पना का प्रारम्भ और अन्त सृजन के लिये होता है।

कल्पना के प्रकार मैक्डूगल ने कल्पना के कुछ प्रमुख प्रकार बतलाये हैं जो निम्नांकित हैं –

(1) सृजनात्मक कल्पना- इस कल्पना का सृजन से सीधा सम्बन्ध होता है। इसी कल्पना के आधार पर चित्रकार चित्र, कवि कविता, लेखक लेखन करता है।

(2) आदानात्मक कल्पना-बालक जब दूसरे के कथन या कल्पना के आधार पर कल्पना करता है तो यह कल्पना आदानात्मक कल्पना कहलाती है।

(3) कार्यसाधक कल्पना-ज्ञान का विकास इसी कल्पना के आधार पर होता है। इसी प्रकार की कल्पना जटिल समस्याओं के हल में सहायक है। यह कल्पना दो प्रकार की होती है –

सैद्धान्तिक कल्पना-उच्च कोटि के नियम, सिद्धान्त आदि इसी कल्पना के आधार पर प्रतिपादित होते हैं।

व्यावहारिक कल्पना-व्यावहारिक या क्रियात्मक बातों से सम्बन्धित कल्पना व्यावहारिक कल्पना कहलाती है। व्यावहारिक जीवन में उपयोग में आने वाली वस्तुओं से सम्बन्धित कल्पना का बालकों के जीवन में बहुत अधिक महत्व है।

(4) रसात्मक कल्पना-इस प्रकार की कल्पना को सौन्दर्यात्मक कल्पना भी कहते हैं। इसके दो प्रमुख प्रकार हैं-

कलात्मक कल्पना-नाटक, कविता, कहानी, चित्र आदि इसी कल्पना के आधार पर बनाये जाते हैं। एक लेखक अपनी कृति की रचना इसी कलात्मक कल्पना के आधार पर करता है।

मनोराज्यमयी कल्पना-इसी कल्पना के आधार पर एक लेखक अपनी कल्पना में स्वाभाविकता और नियन्त्रण को भूलकर अपनी कल्पना तरंगों में गोते लगाता है।

कल्पना विकास के निर्धारक तत्व –बच्चों में कल्पना का विकास निम्नलिखित तरीकों से किया जा सकता है।-

(1) भाषा ज्ञान का विकास करके- भाषा का ज्ञान कल्पना के विकास में एक प्रमुख सहायक कारक है। जैसे-जैसे बच्चों का भाषा का ज्ञान बढ़ता जाता है उसमे कल्पना करने की क्षमता भी बढ़ती जाती है। बच्चा जब किसी कहानी को सुनता है तो अनेक शब्दों को सुनकर उनसें सम्बन्धित चीजों की कल्पना कहानी सुनने के साथ-साथ करता जाता है। जब बच्चे के शब्द ज्ञान में वृद्धि हो जाती है तो वह शब्दों के सहारे अनेक घटनाओं की कल्पना करने लगता है।

(2) कहानियाँ या कथाएँ-बच्चों के कल्पना विकास में कहानियाँ या कथाएँ सहायक होती है। कहानियों से नए-नए शब्दों का ज्ञान बढ़ता है साथ ही कल्पना का भी विकास होता है। शिक्षक को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि जब कोई कहानी बच्चों को सुनाई जाए तो पूरे हाव-भाव के साथ तथा कहानी को आधी सुनाकर बच्चों से पूरी करवाएं। बच्चे इस प्रकार अपनी कल्पना के माध्यम से कहानी को पूरी करेंगें।

(3) अभिनय या कार्यभूमिका- बालकों के कल्पना विकास को अभिनय भी महत्वपूर्ण ढंग से प्रभावित करता है। अभिनय के पात्र से बालक, साहस, वीरता, नैतिकता, हास्य आदि सीखकर पात्रों के समान अपने जीवन को ढालता है, इससे उसका अनुभव और कल्पना शक्ति बढ़ती है। दूसरे अभिनय करके बालक स्वयं अनेक नए अनुभव प्राप्त करता है।

(4) कविताएँ-बालकों के कल्पना विकास को कविताएँ भी प्रभावित करती हैं। जिन कविताओं में कल्पना का पुट जितना ही अधिक होता है वे कविताएँ कल्पना विकास का उतना ही महत्वपूर्ण साधन होती है।  (5) साहित्य, चित्रकारी आदि-बालकों के कल्पना विकास को साहित्य, चित्रकारी, शिल्प और संगीत आदि भी महत्वपूर्ण ढंग से प्रभावित करते हैं। इन सभी साधनों से बालक प्रारम्भ से ही अपने आप को अभिव्यक्त करना सीखता है। इस प्रकार की अभिव्यक्ति जितनी ही अधिक होती है उसकी कल्पना शक्ति के विकास की उतनी ही अधिक सम्भावनाएँ होती है।

(6) जनमाध्यम –सिनेमा, रेडियो और टेलीविजन जैसे माध्यम बालकों में कल्पना शक्ति विकसित करने में सहायक होते है। बच्चों के लिए बनाई गई कार्टून फिल्में तो कल्पना विकास में बहुत अधिक सहायक हैं।

कल्पना का विकास  (Development of Imagination)

अनेक मनोवैज्ञानिक इस बात से सहमत हैं कि कल्पना का विकास बालक में उस समय से प्रारम्भ हो जाता है जब से उसमें भाषा का विकास प्रारम्भ होता है। दो वर्ष की अवस्था तक बालकों की कल्पना का विकास बहुत मन्द गति से होता है परन्तु दो वर्ष की अवस्था के बाद कल्पना का विकास तीव्रगति से होता है। पियाजे का विचार है कि बालक में प्रारम्भ में पुनरोत्पादक कल्पना (Reproductive Imagination) पायी जाती है। बालक में कल्पना का विकास वैसे-वैसे बढ़ता जाता है जैसे-जैसे उसमें प्रतिमाओं  (Images)  का विकास होता जाता है, उसमें इन प्रतिमाओं को संरचित बौद्धिक कार्यों में संगठित करने की योग्यता बढ़ती जाती है।

चार-पाँच वर्ष का बालक अनेक प्रकार की कल्पनाएँ करता है-जैसे मम्मी बाजार से खिलौने और मिठाई ला रही होगी, लकड़ी के बर्तनों से खाना पकाने का खेल आदि। लगभग पाँच वर्ष की अवस्था से ही बालक में रचनात्मक कल्पना का विकास होने लगता है। वह केवल डण्डे या छड़ी को घोड़ा समझकर उस पर सवारी करता है। उत्तर-बाल्यावस्था से ही बालकों में मनोरंजमयी (Fantastic)  कल्पना का विकास तीव्रगति से प्रारम्भ हो जाता है। इस अवस्था के अन्त तक वह भाग्य, मन्त्र और जादू आदि के सम्बन्ध में कल्पना करने लग जाते है। किशोरावस्था तक बालकों की कल्पना का अधिकांश विकास हो चुका होता है। इस अवस्था में बालक-बालिकाएँ बहुधा विपरीत लिंग के लोगों के सम्बन्ध में कल्पना करने लग जाते हैं। अधिकांश बालकों में आयु बढ़ने के साथ-साथ गम्भीरता आती जाती है। वे वास्तविकता से अधिक सम्बन्धित होते हैं। कल्पना का उपयोग तो अधिकांशतः रचनात्मक कार्यों की सृजनात्मकता में करते हैं।